Wednesday, May 25, 2011

कभी शाम का कभी इंतज़ार का
कभी किसी शाम के इंतज़ार का
इंतज़ार है ।














कोणार्क
के रतीले मैदानों पर एक लौटा हुआ समुद्र ताक रहा है दूर बादलों के फाहों की अलसाई चाल को ! तपते पत्थरों में तपे देवता कसमसा रहे है । बुला रहे है ! अभी तकलीफ में हूँ नही आ सकता ! इतिहास और स्मृतियों का फर्क - मृत और सजीव का फर्क, दूर तक गर्म अहसास उगलती रेतीले वीराने में खो जाती है! कहीं कोई है !

Thursday, December 18, 2008

कभी कभी यु ही
जब रात अधिक सर्द हो
और लिफाफे में दर्ज हो
कोई नाम जो अब याद आता न हो
तो खोल के पढ़  लिया जाए
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Sunday, November 16, 2008

यूँ रेशम के धागों सा महीन सच पिरोतें है झूठ की चादरों में
कुछ गाने सा , कुछ रोने सा
कहीं कोई चिल्ला रहा है
गा रहा है करोड़ों बार सुने - सुनाये शर्म - धर्म के गीत
थके हुए, बुझे हुए झंडे - डंडे के गीत
आंसुओं के खिलाफ शब्दों का षडयंत्र
भूख और दंगो पर भाषण देते पंडो का प्रपंच
कहीं है इस बोझिल बकवास का कोई अंत?

ख़ुद को गालिया देते महान बनते मसीह
कोई टांग क्यों नही देता इन्हे सलीबों पर
यादें- गुनगुनाती - शाम की दहलीज पर
सूखे , कटे पेड़ से गिरे हुए, उन सलीबों पर
फिर
इत्मीनान से लेट सिगरेट पीते
शरारती इठलाती हवा में लिखूंगा
पिछली रात के आसुंओं का हिसाब
काजल का भीगा सा अँधेरा पीते
लहराती फुसफुसाती रात की परतों पे लिखूंगा
वक्ष में सुगबुगाते मंत्रों की किताब
पंडो पुजारियों चोरों के सरताज
आंचलों, फूलों और चुप- चुप रोती आँखों
की आस
अब भी बुलाती है मुझे शाम के उस पार
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Saturday, November 8, 2008

अभी देर है अभी और देर है कुछ होने में ! बाहर खिड़की के दुनिया है , तेज लौटते कदमों की थकान भरी उमंग, कहीं बेदम चेहरे - लेकिन दुनिया है ! भीतर अँधेरा है ठीक से अँधेरा भी नही ! मै हूँ! खिड़की मिट सी जाती है - Why are good memories often painful? पीले सूट कुर्सी पर सिमट कर बैठे हुए उसने पूछा था या बताया था ! मालूम नही ! उसकी ठोडी उसके घुटने पर आराम कर रही थी ! पर ये तब की बात थी !

Friday, October 31, 2008

ब्लॉग जो खो गया था

एक कामरेड का एकांत

हाँ! सुनो ! बड़ी - बड़ी कमान जैसी पलकों और रात के भीगे आँचल सी-  काजल के पीछे से झांकती स्नेहिल परतें। वो जब ऐसे कहती है तो उसे कुछ कहना नही होता । कुछ कहती भी नही है, बस .. कुछ पास लाना चाहती है , रस्सी खीच कर जैसे नाव फिर किनारे लगाता हों कोई । वो ऐसे बेठे - बैठे बुनती है एक रेफेल्क्टिव मौन । आती हुई हर आवाज़ टकरा कर लौट जाती है वापस । उसके बालों से वो कैसी अजीब सी सुगंध आती है ? बुनती है वो एकाकी शाम वही .... सैकडो मील दूर।
मेरे गाँव में, दूर, जहाँ मवेशियों का तालाब है, वहाँ -  उसके और पीछे - नीम और आम के झुरमुटों बीच एक पुराना शिव मन्दिर है । जीर्ण- शीर्ण, वीरान सा जैसे लील लिया हो उसे जंगल की सिसकती तडप ने । बाहरी दीवारों पर जगह - जगह पौधे उगे हुए है । जंगली फूल । तेज गंध । उन फूलों का कोई नाम नहीं है कोई उगाता नही उन्हें।  वे बस है।  हमेशा से। ऐसे ही । कोई आता नही वहां । शायद आते होंगे लोग महाशिव रात्रि को । पता नहीं । उस शाम वहाँ कोई नही आता । वो मन्दिर, दीवारों पर उगे पीले, सफ़ेद फूल - दूर से ही....... जैसे पीतवस्त्र धारिणी के गले और वक्ष से आती तेज मादक गंध । हवा रुक रुक कर मेरे बालों को यहाँ - वहां उड़ा  ले  जाती है । मै अक्सर यहाँ आता हूँ उस  एक शाम को । लोग कहते है शिव जी है अन्दर, मैंने देखा नही कभी - अन्दर छोटी बावली के उस तरफ़, लाल सी दीवार के पीछे । कभी गया नही उस ओर । मन्दिर के पीछे, थोडी दूर पर, एक और मन्दिर सा है, ऊपर वो कटा हुआ लाल रंग का झंडा भी है । उस मन्दिर के आस पास जगह साफ़ है । तिलिस्म जंगल का कम है । कई बार शाम के झुटपुटे में उधर पश्चिम से, जहाँ से डूबा होता है सूरज, एक पुजारी भी आता है । हाँ, उसे जरूर देखा है कई बार । मन्दिर है । पुजारी भी है पर उसमे कोई मूर्ति नहीं , पत्थर भी नही, कोई देवता नही ।
"भूल जाते हो अपना मोबाइल ", वो कह रही थी, ऐसे ही कुछ सोचती रहती थी वो । " तभी तो खो देते हो बार बार , कल मैंने डिनर के बाद देखा " । बिना सर ऊपर किए हुए थोड़ा ऊपर, मेरी आँखों में देखते उए उसने कहा । पुजारी परेशान है, देवता खो गया है । शायद उसे लगता है कि  ढलती शाम या थका हुआ सूरज कभी यूँ ही ढूँढ के ले आएगा उसके आराध्य को । या लौटा देगी आती रात ही कभी । इसलिए रोज आता है सूर्यास्त की लालिमा और तनाव से तपे हुए चेहरे वाला पुजारी ।

हवा में उड़ कर उसका सफ़ेद दुपट्टा
मेरे पैरों पर नीली जींस पर पसर गया था जैसे थक गया हो ढाँकते -ढाँकते । उसके वक्ष - उस जंगली फूलों वाले शिव मन्दिर के तपे हुए गुम्बदों से  । दिशाओं की चादरों से ढंके एकांत में धड़कता गर्म - गर्म सा अहसास । क्या ढूँढते रहते है वो ? अँधेरा सा हो रहा है, पुजारी अब  लौट रहा होता है ।

उस दिन देर शाम, चाय पी कर कॉलेज रोड की ओर से हमने शोर्ट कट लिया। कई सालो बाद आया था इधर । कुछ बोल रही थी वो, अपनी सहेलियों के किस्से सुना रही थी ! या शायद और कुछ ! ऐसे ही जब धीरे चलता हूँ तो कंकडों- पथरो को लात मारता जाता हूँ। यूःही अलसाई धीमी- धीमी सी चाल- मेरे हाथ उसके कंधो पर कभी हो, तो उंगलिया उसके बांये वक्ष के इर्द गिर्द झूल जाती ! "P U D R से तुम्हे क्या चिड है?"- उसने फिर मुंह टेढ़ा  कर पूछा !
दुनिया भर की औरतें  झुंझलाते वक्त थोड़ा आश्वस्त क्यों लगती है ? "उफ्ह तुम भी न। कौन सी क्रांति किधर कर डाली तुम्ही लोगों ने , बताओ तो" । वो अक्सर कहती थी 'बताओ तो ' । अच्छा लगता था उसका यूँ मुह टेढ़ा  कर के कहना ।   तब भी ऐसे ही कहा था - " बोल देते हो छोड़ दूँगा, कित्ती तो पी जाते हो सिगरेटें, बताओ तो " । बताओ तो - क्या क्या बताऊ यहाँ जब अनहद सन्नाटा है और मै कुछ सुनना या बताना नही चाहता । उस लाल इमारत की सीडियों के पीछे से चलते हुए, वहां आगे हास्टल में - कभी वो रहा करती थी ! वो मेरे और करीब चलने लगती है !

वो पुजारी मन्दिर के करीब खड़ा है , लेकिन मन्दिर के बाहर खड़ा है, हाथ बांधे ताकता हुआ आसमान को ! जंगल का तिलिस्म  झुरमुटों के नीचे पसरे गहराते अंधेरे के साथ और गहरा गया है ! अभी लालिमा खेल रही है आसमान में ! कहीं मद्धम सलेटी, कहीं लपक लाल ! पर नीम और आम के दरख्तों के नीचे अँधेरा डोल रहा है । नीचे-  टहनियों, लताओं से फिसलते,  उतरते अंधेरे के अंश दूर - दूर तक फ़ैल जाते है । पुजारी तनाव में है । अँधेरा - फैलता जाता है , नीचे नीचे जैसे पानी हो या कोई भारी गैस - और पुजारी के तलवों , घुटनों, छाती से होते हुए,  उसकी आँखों से भीतर घुस कर उसका सत्व पी जाता है । पुजारी का बदन आवेश में काँप रहा है । झुरमुटों से आया अंधेरा तृप्त हो कर मगन है । जैसे छोटे छोटे हवा के बवंडर पत्ते धूल को ले घुमाते है, गोल गोल - अँधेरा उन्मत्त हो कर पुजारी के चारों ओर नाच रहा है । पुजारी के हाथ बंधे है, अब आसमान ताकता मन्त्र बुदबुदा रहा है । लेकिन पुजारी गूंगा हो चुका है । उसके मन्त्र बाहर नही आ पातें और होठ एक हताश रिचुअल में यूँ ही खुल बंद हो रहे है । अँधेरा - पुजारी को पी गए अंधेरे को , अब मंत्रों का भय नहीं क्योंकि वह जानता है कि  पुजारी गूंगा हो चुका है । जंगल के पिशाच भी यह जानते है और पेड़ों पर लटके हुए, उसकी अजीब हरकतों को ताक रहे है । पुजारी का खोखला बदन, आवेश और हताशा और बहुत क्षीण सी किसी आशा के संयुक्त आवेग से कांपता हुआ थरथराने लगा है । उसके बाहर न आ पाते मंत्र उसके खोखले बदन के अन्दर ही गूजने लगतें है । फिर मंत्र एक दूसरे से टकरा कर, हड्डियों से टकरा कर और गूंजने लगे । मंत्र खोखले शरीर में तेजी से घूमते हुए एक दुसरे से टकरा कर प्रतिध्वनियाँ  पैदा करते है वे फिर और प्रति- प्रतिध्वनिया और फिर और फिर - पुजारी का शरीर उसी के मंत्रो और उसके प्रतिध्वनियों के भयंकर कोलाहल में तेज हवा में झंडे सा फड़फड़ा रहा है ! उसे आज शाम यहाँ नहीं आना चाहिए था !

वह फिर चलते चलते अपने बाल पीछे बाँध रही थी अपने होंठो में हेयर बैंड दबाकर , कुछ ऐसे जैसे चिडिया अपनी चोंच में तिनके -दाने रखती है ! आश्वस्त और स्थिर ! सारी दुनिया में एक वही सिर्फ़ इतनी सहज रूप से सुंदर हो सकती थी ! मैंने कहा चलो वापस चलें ! टेडी निगाहों से उसने मुझे फिर एक बार देखा और चुप रही ! क्या ढले शाम किसी बड़ी नदी के पाट पर किनारे लगती मछुआरों की छोटी नावों का कोई भाव होता है ? अगर होता होगा तो वैसा ही होता होगा  जैसा ऐसे समय उसके चेहरे पर है ! पुजारी की यंत्रणा का अंत नही है- उद्विग्न  मंत्रो के बाधित संत्रास के वेग से उसका खोखला शरीर उद्वेलित है ! अँधेरा घिरने को आया है , पेडो पर लटके पिशाच तटस्थ और किचित विस्मित भाव से उसे अब भी ताक रहे है !