Sunday, November 16, 2008

यूँ रेशम के धागों सा महीन सच पिरोतें है झूठ की चादरों में
कुछ गाने सा , कुछ रोने सा
कहीं कोई चिल्ला रहा है
गा रहा है करोड़ों बार सुने - सुनाये शर्म - धर्म के गीत
थके हुए, बुझे हुए झंडे - डंडे के गीत
आंसुओं के खिलाफ शब्दों का षडयंत्र
भूख और दंगो पर भाषण देते पंडो का प्रपंच
कहीं है इस बोझिल बकवास का कोई अंत?

ख़ुद को गालिया देते महान बनते मसीह
कोई टांग क्यों नही देता इन्हे सलीबों पर
यादें- गुनगुनाती - शाम की दहलीज पर
सूखे , कटे पेड़ से गिरे हुए, उन सलीबों पर
फिर
इत्मीनान से लेट सिगरेट पीते
शरारती इठलाती हवा में लिखूंगा
पिछली रात के आसुंओं का हिसाब
काजल का भीगा सा अँधेरा पीते
लहराती फुसफुसाती रात की परतों पे लिखूंगा
वक्ष में सुगबुगाते मंत्रों की किताब
पंडो पुजारियों चोरों के सरताज
आंचलों, फूलों और चुप- चुप रोती आँखों
की आस
अब भी बुलाती है मुझे शाम के उस पार
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Saturday, November 8, 2008

अभी देर है अभी और देर है कुछ होने में ! बाहर खिड़की के दुनिया है , तेज लौटते कदमों की थकान भरी उमंग, कहीं बेदम चेहरे - लेकिन दुनिया है ! भीतर अँधेरा है ठीक से अँधेरा भी नही ! मै हूँ! खिड़की मिट सी जाती है - Why are good memories often painful? पीले सूट कुर्सी पर सिमट कर बैठे हुए उसने पूछा था या बताया था ! मालूम नही ! उसकी ठोडी उसके घुटने पर आराम कर रही थी ! पर ये तब की बात थी !